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Eat the frog

As Mark Twain once said “If it’s your job to eat a frog, it’s best to do it first thing in the morning. And if it’s your job to eat two frogs, it’s best to eat the biggest one first.” The frog is that one thing you have on your to-do list that you have absolutely no motivation to do and that you’re most likely to procrastinate on. Eating the frog means to just do it, otherwise the frog will eat you meaning that you’ll end up procrastinating it the whole day. Once that one task is done, the rest of the day will be an easier ride and you will get both momentum and a sense of accomplishment at the beginning of your day.

Best Career Advice

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To my great surprise, young people now somewhat frequently contact me in order to solicit  career advice . They are usually in college or highschool, and want to know what the best next steps are for a career in security or software development. This is, honestly, a really complicated question, mostly because I’m usually concerned that the question itself might be the wrong one to be asking. What I want to say, more often than not, is something along the lines of  don’t do it ; when I got out of highschool and focused on the answer to that same question, it was very nearly one of the biggest mistakes of my life. Since I get these inquiries fairly regularly, I thought I’d write something here that I can use as a sort of canonical starting point for a response. Tyler Durden was wrong, you  are  your job. In 1971, Dr. Philip Zimbardo conducted a psychological experiment that is now popularly known as the “Stanford Prison Experiment.” He constructed a makeshi...

जो शिलालेख बनता उसको अख़बार बना कर क्या पाया

प्रतिमाओं में पूजा उलझी विधियों में उलझा भक्ति योग सच्चे मन से षड्यंत्र रचे झूठे मन से सच के प्रयोग जो प्रश्नों से ढह जाए वो किरदार बना कर क्या पाया? जो शिलालेख बनता उसको अख़बार बना कर क्या पाया तुम निकले थे लेने स्वराज सूरज की सुर्ख़ गवाही में पर आज स्वयं टिमाटिमा रहे जुगनू की नौकरशाही में सब साथ लड़े,सब उत्सुक थे तुमको आसन तक लाने में कुछ सफल हुए निर्वीय तुम्हें यह राजनीति समझाने में ! इन आत्मप्रवंचित बौनों का दरबार बना कर क्या पाया? जो शिलालेख बनता उसको अख़बार बना कर क्या पाया हम शब्द-वंश के हरकारे सच कहना अपनी परम्परा हम उस कबीर की पीढ़ी जो बाबर-अकबर से नहीं डरा पूजा का दीप नहीं डरता इन षड्यंत्री आभाओं से वाणी का मोल नहीं चुकता अनुदानित राज्य सभाओं से. जिसके विरुद्ध था युद्ध उसे हथियार बना कर क्या पाया? जो शिलालेख बनता उसको अख़बार बना कर क्या पाया?

हम कबीर के वंशज चुप कैसे रहते

वे बोले दरबार सजाओ वे बोले जयकार लगाओ वे बोले हम जितना बोलें तुम केवल उतना दोहराओ वानी पर इतना अंकुश कैसे सहते हम कबीर के वंशज चुप कैसे रहते वे बोले जो मार्ग चुना था, ठीक नही था बदल रहे हैं मुक्तिवाही संकलप गुना था, ठीक नही था बदल रहे हैं हमसे जो जयघोश सुना था, ठीक नही था बदल रहे हैं हम सबने जो खवाब बुना था ठीक नहीं था बदल रहे हैं इतने बदलावों मे मौलिक क्या कहते हम कबीर के वंशज चुप कैसे रहते हमने कहा अभी मत बदलो, दुनिया की आशाऐं हम हैं वे बोले अब तो सत्ता की वरदाई भाषाऐं हम हैं हमने कहा वयर्थ मत बोलो, गूंगों की भाषाऐं हम हैं वे बोले बस शोर मचाओ इसी शोर से आऐ हम हैं इतने मतभेदों में मन की क्या कहते हम कबीर के वंशज चुप कैसे रहते है महाप्राण के वंशज चुप कैसे रहते हमने कहा शत्रु से जूझो थोडे़ और वार तो सह लो वे बोले ये राजनीति है तुम भी इसे प्यार से सह लो हमने कहा उठाओ मस्तक खुलकर बोलो खुलकर कह लो बोले इस पर राजमुकुट है जो भी चाहे जैसे सह लो इस गीली ज्वाला मे हम कब तक बहते हम कबीर के वंशज चुप कैसे रहते हम दिनकर के वंशज चुप कैसे रहते है महाप्राण के वंशज चुप कैसे रहते ...

Madhushala

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला, प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला, पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा, सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१। प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला, एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला, जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका, आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२। प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला, अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला, मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता, एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३। भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला, कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला, कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ! पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४। मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला, भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला, उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ, अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५। मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला, 'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला, अलग-अलग...